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चुनावी खर्चा : भ्रष्टाचार का असली कारण !

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 आज के समय में राजनीति देश सेवा से ज्यादा एक career opportunity बन चुकी है, और हुनरमंद लोग इसकी शुरुआत student life यानि college time से ही कर देते हैं । उन्हें यह उसी समय से पता चल जाता है की एक नेता की ताकत क्या होती है । हम में से अधिकतर लोगों को अपने विद्यार्थी जीवन से ही पता होता है की वे कौन से students होते हैं, जो चुनावी राजनीति में कदम रखते हैं ।  उम्मीद है आप मेरा तात्पर्य समझ गए होंगे ।

यहाँ हम नैतिकता से अधिक आर्थिक मुद्दे पर बात करेंगे, क्योंकि जैसा हमने शुरू में कहा था की राजनीति एक career opportunity बन चुकी है । 

हम बात करेंगे लोक सभा की, क्योंकि यह वो सबसे बड़ा सदन हैं जहां जन प्रतिनिधि जनता द्वारा चुन कर भेजे जाते हैं । हमारे द्वारा एकत्र करी गई जानकारी के अनुसार एक लोकसभा सदस्य की मोटा-माती सैलरी होती है 1,00,000 प्रति माह , मतलब साल के 12 लाख, और 5 साल यानि पूरे tenure के 12 पंजे 60 लाख । आप सोचेंगे की सही रकम है । 

लेकिन अब हम बताते हैं बड़ी ही मज़दार बात । 

सन 2022 में चुनाव आयोग ने लोक सभा चुनाव में प्रत्याशियों (यानि candidates) द्वारा चुनाव में किए जाने वाले खर्च की सीमा 70 से 95 लाख सीमित कर दी । मतलब कुछ राज्यों में 70 लाख और कुछ में 95 लाख और कुछ में इनके बीच का कोई आंकड़ा । हम में से अधिकतर लोगों को पता भी नहीं होता की ऐसी कोई चुनावी खर्च की सीमा भी होती है । 2022 से पहले यह चुनावी खर्च की सीमा 54 से 70 लाख होती थी ।

मतलब कमाई हुई 60 लाख और खर्चा हुआ 70 से 95 लाख, सीधा सीधा 10 से 35 लाख तक का नुकसान । कुछ समझ में आया आपको । हो सकता है सभी प्रत्याशी इतना अधिक खर्च न भी करते हों , लेकिन कुछ तो इससे भी अधिक करते होंगे । आप यह सोच रहे होंगे की कोई ऐसे करिअर को क्यों चुनेगा जहां खर्चा कमाई से अधिक हो । आम आदमी तो कंगाल हो जाए, न पहनने को कपड़े बचें , न खाने को कहना , कर लो देश सेवा और राजनीति ।   

Section 77 of the Representation of the People Act (RPA), 1951 के अनुसार हर चुनावी प्रत्याशी को अपने नामांकन के दिन से लेकर चुनाव का result आने वाले दिन तक का अपना चुनावी खर्च का एक अलग account रखना होता है, जिसे चुनाव सम्पन्न होने के बाद 30 दिन के भीतर चुनाव आयोग के पास जमा करना होता है । इस खर्चे में public meetings, rallies, advertisements, posters, banners, vehicles और  advertisements पर होने वाला खर्चा शामिल होता है । गौर करें की इसमें खिलाने-पिलाने और दारू के खर्चे का कहीं उल्लेख नहीं है, किन्तु अक्सर वो सबसे अधिक होता है । 

यदि खर्च limit से अधिक हुआ या लेखे -जोखे में कोई गड़बड़ी हुई तो प्रत्याशी पर तीन साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लग सकता है । 

इतने बढ़िया कानूनों के होते हुए भी चुनावी समय में फ्री की दारू भी चलती है, और पैसे भी बांटे जाते हैं । जहां कुछ बड़े नेता, छोटे प्रत्याशियों का प्रचार करने आते हैं , वहाँ तो इस तरह का हिसाब रखना ही मुश्किल है, क्योंकि वहाँ तो आधी सरकारी मशीनरी ही चुनाव प्रचार में indirect तरीके से जुट जाती है । यदि कोई ईमानदार नेता हो तो वो या तो इन धुरंधरों के सामने कम खर्चा करने के कारण हार जाएगा, या अगर खर्चा कर के चुनाव जीत भी गया तो अपना investment ही पाँच सालों में भी निकाल नहीं पाएगा ।  

कुछ लोग कहते हैं की भ्रष्टाचार की शरुआत ऊपरी स्तर से होती है, कुछ कहते हैं की सबसे निचले स्तर से होती है । हमारा मानना यह है की भ्रष्टाचार की शुरुआत गलत नीतियों से होती है। 

जो नौकरी हद से ज्यादा खर्चा करने से मिलेगी, तो सामान्य सी बात है की वो कर्मचारी भ्रष्टाचार करेगा ही करेगा । नहीं करेगा तो अपना पेट कहाँ से भरेगा । वो नौकरी चाहे एक चपरासी की हो या एक सांसद की । 

सुधार की गुजाइश सदा रहती है, आज भले ही भारतवर्ष बहुत विकास कर चुका है, और आगे भी करेगा, किन्तु इस भ्रष्टाचार की जड़ों को खतम करे बिना हम उस  रामराज्य को प्राप्त नहीं कर सकते जिसके हमें सपने दिखाए जाते है । यूं तो त्रेता युग के राम राज्य में भी कुछ कमियाँ रही होंगी, तो आज कलयुग के राम राज्य में उससे तो अधिक ही कमियाँ होंगी, किन्तु सही नीतियाँ बना कर उन कमियों को कम किया जा सकता है । 

आपका चुनावी खर्चे को ले कर क्या विचार है , यह comments में लिख कर  अवश्य बताएँ । 

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