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क्या दिवाली पर आतिशबाज़ी करना सनातन परंपरा है? – एक ऐतिहासिक और धार्मिक विश्लेषण

हर वर्ष दीपावली का पर्व आते ही एक पुराना विवाद दोबारा जन्म लेता है — “क्या दिवाली पर पटाखे जलाना हमारी सनातन परंपरा का हिस्सा है?” कुछ लोग मानते हैं कि आतिशबाज़ी पर रोक लगाना हिंदू परंपराओं का अपमान है, जबकि कुछ लोग इसे प्रदूषण और असंयम का प्रतीक मानते हैं। इस लेख का उद्देश्य किसी की आस्था पर प्रश्न उठाना नहीं है, बल्कि तथ्यों, इतिहास और शास्त्रों के आधार पर

Festival of Lights

1. दीपावली का मूल स्वरूप: प्रकाश और सदाचार का उत्सव

‘दीपावली’ शब्द स्वयं अपने अर्थ में स्पष्ट है — दीपों की पंक्ति। यह ‘अंधकार पर प्रकाश’ और ‘अज्ञान पर ज्ञान’ की विजय का प्रतीक है। वेदों और पुराणों में दीपदान को पुण्यकर्म कहा गया है।

ऋग्वेद (9.73.7) में कहा गया है — “तमसो मा ज्योतिर्गमय” अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।

स्कंद पुराण, पद्म पुराण और कात्यायन स्मृति में दीपावली को लक्ष्मी पूजन, दान और घरों की सजावट का पर्व बताया गया है। इनमें कहीं भी पटाखों, बारूद या विस्फोटक वस्तुओं का उल्लेख नहीं है।

प्राचीन भारत में लोग घी या तेल के दीप जलाते थे, घर और मंदिरों को सजाते थे, दान करते थे, और रात्रि में लक्ष्मी-गणेश की पूजा के साथ आनंद मनाते थे। यही दिवाली का शुद्ध और सनातन स्वरूप था।


2. आतिशबाज़ी का इतिहास: कब और कैसे आई?

अब प्रश्न उठता है — अगर शास्त्रों में इसका उल्लेख नहीं, तो आतिशबाज़ी की शुरुआत कब हुई?

  • बारूद (Gunpowder) का आविष्कार चीन में लगभग 9वीं शताब्दी ईस्वी में हुआ।
  • भारत में बारूद का आगमन 13वीं–14वीं शताब्दी में हुआ, जब मुस्लिम शासक और बाद में मुगल दरबार चीन और अरब से इसे लेकर आए।
  • मुगल काल में आतिशबाज़ी शाही उत्सवों और युद्ध-विजयों का हिस्सा बनी।
  • धीरे-धीरे यह राजदरबारों से निकलकर जनता तक पहुँची और दिवाली जैसी लोक-उत्सवों में शामिल हो गई।

इस प्रकार आतिशबाज़ी का भारतीय संस्कृति में प्रवेश मध्यकालीन विदेशी प्रभाव के साथ हुआ, न कि वैदिक या प्राचीन काल में।


3. धार्मिक दृष्टि से पटाखों का औचित्य

धर्मशास्त्रों के अनुसार, दिवाली पर अग्नि का प्रयोग केवल दीपों और यज्ञों के रूप में होता है। अग्नि देवता को पवित्रता, ज्ञान और रूपांतरण का प्रतीक माना गया है।

किन्तु बारूद और रासायनिक विस्फोटक न तो पवित्रता का प्रतीक हैं, न ही आध्यात्मिक साधना से उनका कोई संबंध है। उल्टा, वे प्रदूषण, हिंसा और व्यर्थ खर्च का कारण बनते हैं।

मनुस्मृति (5.43): “अहिंसा परमो धर्मः” — किसी भी जीव को हानि न पहुँचाना ही परम धर्म है।

जब पटाखों से पशु-पक्षी, पर्यावरण और स्वयं मनुष्य को हानि पहुँचती है, तब यह कर्म “धर्म” नहीं, बल्कि “अधर्म” के निकट चला जाता है।


4. भाषाई दृष्टि: "आतिशबाज़ी" शब्द कहाँ से आया?

“आतिशबाज़ी” शब्द फ़ारसी-उर्दू मूल का है — “आतिश” का अर्थ है आग और “बाज़ी” का अर्थ है खेल। अर्थात “आग से खेलना”।

जबकि “पटाखा” शब्द हिंदी-देशज ध्वनि “पट्” (फटने की आवाज़) से निकला है। इसलिए “आतिशबाज़ी” तो पूर्णतः विदेशी शब्द है और इसका प्रयोग भारत में मुगल काल से शुरू हुआ।

यदि यह परंपरा वैदिक होती तो इसका कोई संस्कृत या पाली समकक्ष शब्द अवश्य मिलता, जैसे दीपक्रीड़ा या अग्निकौतुक। लेकिन ऐसे किसी शास्त्रीय संदर्भ का अभाव यह दर्शाता है कि यह **नवीन परंपरा** है।


5. वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण

आतिशबाज़ी से उत्पन्न प्रदूषण, ध्वनि और रासायनिक धूल न केवल पर्यावरण को हानि पहुँचाती है, बल्कि यह कई धार्मिक सिद्धांतों का भी उल्लंघन करती है।

  • **वायु प्रदूषण** – सल्फर, नाइट्रेट और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें वातावरण को दूषित करती हैं।
  • **ध्वनि प्रदूषण** – 100 से 140 डेसीबल तक की आवाज़ें बुज़ुर्गों, नवजातों और पशुओं के लिए हानिकारक हैं।
  • **अन्न और जल की अशुद्धि** – विस्फोटक धूल मिट्टी और जल को दूषित करती है।
  • **अहिंसा सिद्धांत का उल्लंघन** – पक्षियों और जीवों के प्राणों को कष्ट देना।

सनातन धर्म का एक प्रमुख सिद्धांत है — “सर्वभूतहिते रताः” अर्थात सभी प्राणियों के कल्याण में रत रहना। जब हम अपने उत्सव से ही दूसरों को कष्ट देते हैं, तो यह सनातन की आत्मा के विपरीत होता है।


6. “सेक्युलरिज़्म बनाम सनातन” की भ्रांति

आजकल यदि कोई व्यक्ति पर्यावरण की दृष्टि से पटाखों का विरोध करता है, तो कुछ लोग इसे “हिंदू विरोध” या “सेक्युलर साज़िश” मान लेते हैं। यह दृष्टिकोण पूर्णतः गलतफहमी पर आधारित है।

दिवाली पर पटाखों का विरोध करना धर्म का विरोध नहीं, बल्कि **धर्म की रक्षा** है। वास्तविक धर्म वह है जो संयम, विवेक और करुणा सिखाए — न कि प्रदर्शन और प्रदूषण।

यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि “हिंदू त्योहारों को निशाना बनाया जा रहा है”, तो उससे यह पूछना चाहिए — क्या वास्तव में पटाखे हमारे वेदों, उपनिषदों या पुराणों का हिस्सा हैं? क्या श्रीराम के अयोध्या लौटने पर किसी ग्रंथ में “आतिशबाज़ी” का उल्लेख है? उत्तर होगा — **नहीं**।

इसलिए इस विषय को धर्म-विरोध या राजनीति से जोड़ना अनुचित है। यह संवेदनशीलता बनाम स्वार्थ का मामला है।


7. आध्यात्मिक दृष्टि: दिवाली का आंतरिक अर्थ

दिवाली केवल बाहरी दीपों का पर्व नहीं है; यह **अंतःकरण के अंधकार को मिटाने का अवसर** है। जब मनुष्य अपने भीतर के क्रोध, लोभ, और अहंकार को दूर करता है, तभी असली “दीपोत्सव” मनता है।

श्रीराम के अयोध्या लौटने का प्रतीक यही है — जब सत्य, धर्म और प्रेम हमारे जीवन में लौटते हैं, तब हर हृदय में दीप जलता है।

आतिशबाज़ी का शोर इस आंतरिक शांति को ढक देता है। दीप का प्रकाश हमें आत्मस्मरण कराता है; जबकि पटाखे का शोर हमें बाहरी दिखावे में उलझा देता है।


8. अन्य धर्मग्रंथों और इतिहास में उल्लेख

यदि हम रामायण, महाभारत, वेद, पुराण, या यहां तक कि कालिदास जैसे कवियों के ग्रंथ देखें, तो किसी में भी आतिशबाज़ी या विस्फोटक उत्सवों का वर्णन नहीं है।

  • रामायण में श्रीराम के अयोध्या लौटने पर दीप प्रज्वलन का उल्लेख है, पटाखों का नहीं।
  • कृष्ण के गोवर्धन पूजा, नरक चतुर्दशी या बालि प्रतिपदा में भी दीपदान, स्नान और दान की परंपरा है, विस्फोट की नहीं।
  • यहां तक कि गुप्त और मौर्य काल की कलाकृतियों, अभिलेखों या ग्रंथों में भी आतिशबाज़ी का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

स्पष्ट है कि आतिशबाज़ी एक **मध्यकालीन विदेशी प्रभाव** है, न कि कोई प्राचीन धार्मिक परंपरा।


9. आधुनिक काल में परिवर्तन और व्यावसायिक प्रभाव

ब्रिटिश काल के बाद जब औद्योगीकरण बढ़ा, तो सस्ती आतिशबाज़ी का व्यापार तेजी से फैला। सिवाकासी (तमिलनाडु) जैसे शहरों में पटाखा उद्योग स्थापित हुए। धीरे-धीरे यह “त्योहार की अनिवार्यता” के रूप में प्रचारित किया गया।

मीडिया, विज्ञापनों और फिल्मों ने भी इस सोच को मजबूत किया कि “दिवाली का मतलब है पटाखे”। परंतु यह पूरी तरह व्यावसायिक और सांस्कृतिक भ्रम था, न कि धार्मिक परंपरा।


10. पर्यावरण और धर्म का संतुलन

धर्म और प्रकृति एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। वेदों में प्रकृति को “माता” कहा गया है —

"माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" (अथर्ववेद 12.1.12) — पृथ्वी मेरी माता है, और मैं उसका पुत्र हूँ।

जब हम अपनी माता तुल्य पृथ्वी को प्रदूषण और धुएं से भर देते हैं, तो यह किसी भी दृष्टि से धार्मिक कर्म नहीं कहलाता। वास्तव में, **पर्यावरण की रक्षा ही धर्म की रक्षा है।**


11. सही मार्ग: दीप, दान और धर्म

यदि हम वास्तव में सनातन धर्म के अनुयायी हैं, तो हमें अपने कर्मों में सदाचार और संयम दिखाना होगा। दिवाली को सुंदर बनाने के लिए हमें आतिशबाज़ी नहीं, बल्कि दीप, दान, और भक्ति की आवश्यकता है।

  • घी या मिट्टी के दीप जलाइए।
  • ग़रीबों को वस्त्र, भोजन या दीपदान कीजिए।
  • प्रकृति को धन्यवाद कहिए, उसे हानि नहीं पहुँचाइए।
  • शांति, प्रेम और सहयोग का दीप जलाइए — यही असली दिवाली है।

12. निष्कर्ष: दिवाली का सच्चा अर्थ

दिवाली का अर्थ कभी “आतिशबाज़ी का पर्व” नहीं था, न है। यह **दीपों, ज्ञान और धर्म का पर्व** है। जो लोग इसे प्रदूषण और दिखावे का प्रतीक बना रहे हैं, वे अनजाने में उसकी आत्मा को भूल रहे हैं।

यदि आज हम विवेक से सोचें, तो यह स्पष्ट है कि आतिशबाज़ी पर नियंत्रण या प्रतिबंध लगाना हिंदू धर्म का अपमान नहीं, बल्कि उसकी **आध्यात्मिक भावना का सम्मान** है।

सनातन धर्म ने सदा कहा —

“धर्मो रक्षति रक्षितः” — जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।

अतः जब हम पृथ्वी, वायु और जीवों की रक्षा करते हैं, तो हम ही सच्चे अर्थों में धर्म की रक्षा कर रहे होते हैं। आइए, इस दिवाली हम अपने भीतर का दीप जलाएँ — बाहरी शोर नहीं, बल्कि **अंतर की शांति और प्रकाश** को जगाएँ। यही सनातन की सच्ची परंपरा है।


लेखक का उद्देश्य किसी धर्म या समुदाय की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि तथ्यों और धर्मशास्त्रों के आलोक में विवेकपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करना है।

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