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भारतीय धर्मनिर्पेक्षता : एक राजनितिक छल

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धर्मनिर्पेक्षता (Secularism), भारत में इस्तेमाल होने वाला एक ऐसा शब्द बन गया है जिसका उपयोग किसी की भलाई के लिए कम, राजनितिक दलों के इस्तेमाल के लिए ज्यादा हुआ है | यदि आप भारतीय धर्मनिर्पेक्षता के बारे में ज्यादा जानकारी एकत्र करेंगे तो पाएंगे की ये वास्तव में धर्मनिर्पेक्षता है ही नहीं | भारतीय संविधान में धर्मनिर्पेक्षता को एक कानून के रूप में ठीक से लागू किया ही नहीं गया, न ही इसकी कोई सही परिभाषा लिखी गयी | Wikipedia पर Secularism in India नामक एक लेख में ये बात सही तरीके से बताई गयी है | वहां नीचे दी गयी पंक्ति हुबहू लिखी गयी है |
  • "Neither India's constitution nor its laws define the relationship between religion and state."
  • "Religious laws in personal domain, particularly for Muslim Indians, supersede parliamentary laws in India; and currently, in some situations such as religious indoctrination schools the state partially finances certain religious schools. These differences have led a number of scholars[8][30][31] to declare that India is not a secular state, as the word secularism is widely understood in the West and elsewhere; rather it is a strategy for political goals in a nation with a complex history, and one that achieves the opposite of its stated intentions."

जहाँ एक तरफ भारतीय संविधान सभी धर्मों को मान्यता देता है, और किसी एक धर्म को भारत का राष्ट्रीय धर्म नहीं मानता , वहीँ दूसरी तरफ मुस्लिम धर्म को अलग धार्मिक कानून मानने की अनुमति देता है | यही बात भारतीय धर्मनिर्पेक्षता को बाकी दुनिया की धर्मनिर्पेक्षता से अलग करती है | हालाकि भारत में हिन्दू धर्म की जनसंख्या सबसे ज्यादा है, फिर भी उनको व् अन्य सभी धर्मों को एक ही कानून मानना पड़ता है |
कौन धर्मनिरपेक्ष और कौन धार्मिक ? भारत में जो व्यक्ति या संस्था हिन्दुओं के हितों को ध्यान में रख के बात करे , उस पर राजनितिक दल "धार्मिक" होने का आरोप लगाते हैं , और जो मुस्लिमों के पक्ष में बोले वो धर्मनिरपेक्ष | तसलीमा नसरीन का एक वक्तव्य इस बात को साबित करने के लिए काफी है |

भारत में आप किसी भी धर्म की धार्मिक भावनाओ से खेल सकते हैं, लेकिन मुस्लिमों की नहीं (ये तसलीमा नसरीन के विचार हैं )| वैसे तो किसी भी धर्म की धार्मिक भावनाओ से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए लेकिन सबको एक कानून मानने को विवश करना ही सही धर्मनिर्पेक्षता है | नीचे दी गयी अखबार की कटिंग शायद आपका ध्यान इस ओर खींचे |

मुस्लिमों को अलग कानून मानने की अनुमति देना "समानता के अधिकार" का भी उलंघन है | वैसे तो आरक्षण भी समानता के अधिकार का उलंघन है, लेकिन वो अलग विषय है | भारतीय संविधान ऐसी गलतियों से भरा पड़ा है , लेकिन ये कहने वालों को भी धार्मिक होने का आरोप झेलना पड़ता है | भारत की इसी धर्मनिर्पेक्षता की वजह से आज भी बाल-विवाह , बहु-विवाह (polygamy) व् ट्रिपल-तलाक जैसे विवादस्पद विषय आज भी भारत में चर्चा का विषय बने हुए हैं | कई हिन्दू संघटन मुस्लिमों पर अपनी जरुरत के हिसाब से कानून का इस्तेमाल करने का भी आरोप लगाते हैं| वे कहते हैं की शादी से सम्बंधित चीज़ों में ये शरियत कानून मानते हैं लेकिन अन्य फौजदारी (चोरी, मर्डर व् अन्य) मुकदमों में ये कॉमन सिविल लॉ मानते हैं, क्योंकि शरियत के हिसाब से उसकी सजा ज्यादा कठिन है |
कुल मिला कर धर्मनिर्पेक्षता को आज तक सिर्फ राजनितिक फायदे के लिए ही इस्तेमाल किया गया है | सब दलों को ये पता है की यदि कोई दल सही मायनों में धर्मनिर्पेक्षता को लागू करेगा तो उसे मुस्लिम वोटों से हाथ धोना पड़ेगा | और जो दल थोडा बहुत भी हिन्दुओं के लिए काम करेगा उसे धार्मिक दल होने का आरोप सहना पड़ेगा |

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